Source: 
Author: 
Date: 
05.05.2019
City: 

जगदीप एस छोकर। चुनावी माहौल गरम है। एक-एक वोट के लिए घोर संघर्ष जारी है। ऐसे में कुछ स्थानों से मतदान के बहिष्कार की खबरें जन और तंत्र दोनों को आकुल करती हैं। एक विचार यह भी है कि बहिष्कार करना लोकतांत्रिक नहीं है क्योंकि इसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया से अलग हो जाना माना जाता है। इससे अच्छा है नोटा (नन ऑफ़ दी अबव)। अर्थात मत किसी भी उम्मीदवार को नहीं दिया जाए। कुछ लोगों के विचार में नोटा को वोट देना अपने वोट को निरर्थक या बेकार करना है। इसकी असलियत क्या है?

ईवीएम (इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन) पर नोटा नाम का बटन लगाने का प्रावधान सुप्रीम कोर्ट के 23 सितंबर 2013 के एक निर्देश पर किया गया है। दलील यह थी कि नोटा का बटन होने से ऐसे मतदाता के मत की गोपनीयता बनी रहेगी जो किसी भी उम्मीदवार के हक में वोट नहीं देना चाहता, और ना ही वोट देने से अनुपस्थित रहना चाहता। न्यायालय ने इस दलील को तो माना ही पर अपने निर्णय में और भी कुछ लिखा। उस पर हम बाद में आएंगे। चुनाव आयोग ने ईवीएम पर नोटा नाम का एक बटन लगा दिया लेकिन और कोई भी बदलाव नहीं किया।

इसका परिणाम ये हुआ कि नोटा के हित में जो वोट पड़े, उनको गिना तो गया पर उनका चुनाव के परिणाम पर कोई असर नहीं पड़ा। इससे कहने को तो सुप्रीम कोर्ट का फैसला लागू कर दिया गया पर असल में फैसले की जो भावना थी, उसका पालन नहीं हुआ।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले की भावना को दो वाक्यों में साफ जाहिर की थी। ‘इस प्रकार, एक जोशीले लोकतंत्र में, मतदाता को नोटा चुनने का मौका दिया जाना चाहिए ..., जो कि ... राजनीतिक दलों को मजबूर करेगा कि वे अच्छे उम्मीदवारों को टिकट दें।

जब राजनीतिक दलों को अहसास होगा कि बड़ी संख्या में लोग उम्मीदवारों के साथ अपनी अस्वीकृति व्यक्त कर रहे हैं तो पूरे सिस्टम में बदलाव होगा और राजनीतिक दल लोगों की इच्छा को मानने के लिए मजबूर हो जायेंगे कि ऐसे उम्मीदवारों को टिकट दिए जाएं, जो ईमानदारी और सच्चाई के लिए जाने जाते है।’

सुप्रीम कोर्ट के फैसले को भावनानुसार लागू करने के लिए प्रावधान होना चाहिए था कि अगर नोटा को सबसे अधिक वोट मिले (सब उम्मीदवारों से अधिक), हो वह चुनाव रद्द हो जाना चाहिए, और  इसके बाद एक नया चुनाव होना चाहिए जिसमें उन उम्मीदवारों को खड़े होने की अनुमति नहीं होनी चाहिए। केवल यही तरीका है जिससे राजनीतिक दल बेहतर और अच्छी छवि वाले उम्मीदवारों को टिकट देने के लिए मजबूर हो जाएंगे। हालांकि बाद में सुप्रीम कोर्ट ने साफशब्दों में लिखा, ‘केंद्रीय चुनाव आयोग ने यह करने के बजाय केवल ईवीएम में नोटा नाम का एक बटन लगा दिया और कुछ नहीं किया। इससे सुप्रीम कोर्ट के फैसले की भावना ताक पर रख दी गई।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पूर्णतया लागू करने में दो राज्य चुनाव आयोगों ने बहुत ही सराहनीय पहल की है। 13 जून 2018 को महाराष्ट्र के राज्य चुनाव आयोग ने एक अधिसूचना जारी की, जिसमें लिखा था कि अगर किसी चुनाव में नोटा को सबसे अधिक वोट मिलेंगे, तो वह चुनाव रद्द कर दिया जाएगा। उसकी जगह नया चुनाव कराया जायेगा। यह प्रावधान हालांकि केंद्रीय चुनाव आयोग से तो कहीं बेहतर है लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले की भावना को पूरी तरह क्रियान्वित नहीं करता।

इसकी भरपाई हरियाणा के राज्य चुनाव आयोग ने की। उनकी अधिसूचना 22 नवंबर 2018 को जारी हुई। इसमें प्रावधान है कि अगर किसी चुनाव क्षेत्र में नोटा को सबसे अधिक वोट मिलते हैं, तो वह चुनाव रद्द कर दिया जाएगा और उसकी जगह नया चुनाव कराया जायेगा जिसमें पहले वाले उम्मीदवार खड़े नहीं हो सकेंगे।

राज्य चुनाव आयोग केवल पंचायत और नगर निगमों के चुनाव करवाने के लिए जिम्मेदार है। विधान सभाओं, संसद, राष्ट्रपति, और उपराष्ट्रपति के चुनाव कराने की जिम्मेदारी केंद्रीय चुनाव आयोग की है। आशा है कि केंद्रीय चुनाव आयोग इन दो राज्य चुनाव आयोगों का अनुसरण करेगा और नोटा को कारगर बनाएगा।

     (संस्थापक सदस्य, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स)

© Association for Democratic Reforms
Privacy And Terms Of Use
Donation Payment Method