देश में चुनाव के ठीक पहले हुए इस किस्म के व्यापक सर्वेक्षण में इस बात को स्पष्ट तौर पर रेखांकित किया गया है कि देश का मिजाज राजनीतिक मिजाज से बिल्कुल भिन्न चल रहा है।
इस सर्वेक्षण का निष्कर्ष है कि आम लोगों के लिए राजनीतिक मुद्दे चिंता के विषय ही नहीं हैं। आम जनता फिलहाल रोजगार को अपनी शीर्ष प्राथमिकता मानती है।
इस निष्कर्ष से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि एक बार फिर देश के तमाम राजनीतिक दल जनता के मिजाज को समझने में या तो असफल हो रहे हैं
अथवा इस मुद्दे पर चुनावी बहस से भाग रहे हैं। वैसे भी रोजगार के सवाल पर केंद्र सरकार पर एनएसएसओ के आंकड़ों के साथ छेड़छाड़ करने का आरोप लगा है।
लेकिन चूंकि मतदान में आम आदमी को ही वोट देना है, इसलिए उसकी प्राथमिकता से चुनावी परिदृश्य पर असर पडना लगभग तय है।
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने देश भर में अक्टूबर 2018 और दिसंबर 2018 के बीच किया है। इस सर्वेक्षण में 534 लोकसभा निर्वाचन-क्षेत्रों को सम्मिलित किया गया।
जिसमें विभिन्न जनसांख्यिकी के 273479 मतदाताओं ने भाग लिया। लिहाजा इसे चुनावी परिदृश्य पर मतदाताओं की सोच का सबसे बड़ा सर्वेक्षण माना जा सकता है, जिसमें कोई राजनीति नहीं थी।
वरना अन्य सर्वेक्षणों में मुख्य तौर पर कौन जीतेगा और कौन हारेगा, इसी आधार पर बहुत कम लोगों की राय शामिल की जाती है।
सर्वेक्षण में तीन क्रम से अंक भी दिये गये हैं। जिसमें बहुत अच्छा को 5, औसत को 3 और बुरा को 1 अंक प्रदान किया गया है।
इस पर ध्यान देना महत्त्वपूर्ण है कि अखिल भारतीय स्तर पर मतदाताओं की शीर्ष 10 प्राथमिकताओं में कृषि से संबंधित मुद्दे ही उभर कर सामने आये हैं।
केंद्र सरकार के लिए भी यह चिंता का विषय है कि लगातार प्रचार प्रसार के बाद भी देश के मतदाताओं ने सर्वेक्षण के सभी मुद्दों पर सरकार को बेहतर का अंक प्रदान नही किया है।
इस रिपोर्ट के आधार पर हम यह मान सकते हैं कि देश का असली मिजाजा देश के चुनावी मिजाज से कतई मेल नहीं खाता है।
लोगों के जेहन में अब भी रोजगार की चिंता सता रही है। इसके अलावा स्वास्थ्य सेवा भी इस सोच में दूसरे नंबर पर है, जिसमें सरकार का प्रदर्शन बेहतर आंका जा सकता है
क्योंकि हाल ही में आयुष्मान योजना के लागू होने के अनेक गरीबों को बेहतर चिकित्सा का लाभ मिला है। अलबत्ता इस पर लंबे समय पर प्रभाव को अभी परखा जाना शेष है।
लिहाजा राजनीतिक दलों को इसी सोच के आधार पर अपनी चुनावी रणनीति निर्धारित करने की मजबूरी है।
शायद इसे भांपते हुए ही कांग्रेस ने हर गरीब के खाते में वार्षिक 72 हजार रुपया परिवार की महिला मुखिया के खाते में डालने की बात कही है।
जिसे भाजपा ने एक झूठ कहा है। लेकिन रोजगार की कसौटी पर अगर देखें तो नये रोजगारों के सृजन की कोई ठोस योजना अब तक कोई भी पार्टी सामने नहीं ला पायी है।
वर्तमान सरकार ने रोजगार के मुद्दे पर जो वादा किया था, वह अपने लक्ष्य से काफी पीछे रहा है। यह तो तय है कि वर्ष 2014 के चुनाव ने भारतीय मतदाताओं को पहले के मुकाबले अधिक प्रशिक्षित कर दिया है।
इसलिए अब भाजपा को अपने नेता की लोकप्रियता के शिखर पर होने के बाद भी स्थानीय औऱ राष्ट्रीय मुद्दों पर जनता को बार बार भरोसे दिलाना पड़ रहा है।
व्यक्ति केंद्रित राजनीति से पीड़ित भाजपा के पास जनता को प्रभावित करने वाले दूसरे नेता भी नहीं बचे हैं।
इस वजह से चुनावी प्रचार में उसकी स्थिति भी कांग्रेस के मुकाबले कमजोर होती दिख रही है। कांग्रेस में अध्यक्ष होने के बाद भी राहुल गांधी के ईर्द गिर्द चुनावी चक्र नहीं चल रहा है।
नेताओं को अपने संगठन की कमजोरी का पता है और वे अपने अपने स्तर पर इसका मुकाबला कर रहे हैं।
दूसरी तरफ भाजपा के अंदर चुनाव में टिकट की घोषणा होने के बाद वे सारी बीमारियों खुलकर सामने आने लगी हैं, जो कभी कांग्रेस में थीं और अंततः कांग्रेस के पतन का कारण बनी।
ऐसे में जनता की सोच के अनुरुप अपनी चुनावी रणनीति को संचालित करने वाले ही अंतिम फैसले में विजयी होंगे।
लोकप्रियता में नरेंद्र मोदी के लगातार आगे होने के बाद भी अब मतदाताओं को अन्य मुद्दों पर प्रभावित करने तथा अपने पक्ष में अंतिम समय तक बनाये रखने की जिम्मेदारी भाजपा की है।
रोजगार के सवाल पर यह चुनौती किसी के लिए भी चुनावी नैय्या डूबो सकती है।