संसद में विधेयक पेश करना और उस पर विस्तार से चर्चा करना सबसे महत्वपूर्ण कार्य है, ताकि विधेयक की खूबी और कमियां सामने आ सकें, लेकिन अब राजनीति इतनी हो रही है कि स्वस्थ चर्चा की तो उम्मीद ही नजर नहीं आती है?
एडीआर.... एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के सह-संस्थापक जगदीप छोकर के हवाले से बीबीसी की रिपोर्ट है, जिसमें वह कहते हैं कि- ये सिलसिला 2011-12 से जारी है, संसद बस एक मुहर लगाने वाली संस्था रह गई है, क्योंकि अब संसद का काम वहां पास किए जाने वाले विधेयकों पर चर्चा करना नहीं रह गया है, संसद सदस्यों को विधेयक पढ़ने का वक्त भी नहीं मिलता है, विधेयक संसद में पेश होने के कुछ मिनटों बाद ही पास कर दिए जाते हैं, मेरा मानना है कि सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष तक ज्यादातर संसद सदस्यों को पता ही नहीं होता है कि विधेयकों में क्या है?
सदस्यों का काम हां या ना में अपना मत देना रह गया है, जबकि होना ये चाहिए कि विधेयकों को पहले संसद सदस्यों के बीच वितरित किया जाए ताकि वो उन्हें पढ़ सकें, इसके बाद सदन में विधेयक को पढ़ा जाता है, उसके हर प्रावधान पर चर्चा होती है, लेकिन ये सब अब कहां होता है?
वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी का कहना है कि- इस सत्र के दौरान 23 विधेयक पारित हुए हैं, जिसमें कई अहम विधेयक हैं, डेटा प्रोटेक्शन विधेयक की निंदा सोशल मीडिया तक पर हो रही है, जंगलों में रहने वाले लोगों के अधिकारों से लेकर नकली दवाओं के लिए सज़ा तय करने वाले कई विधेयक लाखों लोगों को प्रभावित करने जा रहे हैं!
संसद में जनता के हित में जो भी फैसले लिए जाएं, उन पर पर्याप्त चर्चा होनी चाहिए, कमियों को दूर करना चाहिए और इसके बाद ही इन्हें लागू करना चाहिए, यदि एकतरफा फैसले होते हैं, तो यह स्वस्थ प्रजातंत्र के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं?