बुधवार को आया उच्चतम न्यायालय का फैसला देश की समूची राजनीतिक प्रक्रिया में अपराधीकरण के घातक प्रभावों को रोकने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह निर्वाचन कानून की उस बड़ी त्रुटि को दूर करता है, जिसका फायदा उठाकर सांसद या विधायक आपराधिक मामलों में दो या दो से अधिक वर्षों के कारावास की सजा पाने के बावजूद चुनाव में हिस्सा लेते और बार-बार जीतते थे। बचाव के इस तरीके को 1989 में जनप्रतिनिधित्व कानून में शामिल किया गया था। ताजा फैसला 2005 में दायर दो याचिकाओं पर आया है। एक याचिका लिली थॉमस द्वारा दायर की गई थी। वह 85 साल की वृद्ध महिला हैं और उच्चतम न्यायालय में वकील हैं। दूसरी याचिका लखनऊ स्थित गैर सरकारी संगठन लोक प्रहरी ने दायर की थी। इस संगठन के महासचिव एस एन शुक्ला सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी हैं। प्रसिद्ध वकील फली नरीमन ने लिली थॉमस की ओर से जिरह पेश की और एस एन शुक्ला ने अपना तर्क खुद रखा। बहस का असल मुद्दा था जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा-8 (4) की सांवैधानिक वैधता। यह उपधारा-4 सांसदों व विधायकों को दोषी साबित होने के बाद भी अपना कार्यकाल पूरा करने और आगे चुनाव लड़ने का रास्ता देती है, जबकि एक सामान्य नागरिक दोषी साबित होने के बाद अपराध सिद्ध होने की तारीख से अगले छह वर्षो तक चुनाव नहीं लड़ सकता। एक दोषी सांसद या विधायक को तीन महीने की मोहलत दी जाती है कि वह ऊपरी अदालत में अपील कर सके। जब तक कि यह अपील विचाराधीन है और इस पर अंतिम निर्णय नहीं आता, तब तक दोषी सांसद या विधायक अपने पद पर बने रह सकते हैं या फिर चुनाव लड़ सकते हैं।
इसका कुल जमा नतीजा यह आता रहा है कि जैसे ही अपील दायर हुई, वैसे ही दोषी सांसद या विधायक एक सामान्य दोषी से अधिक आजाद हो जाते हैं। यह एक सामान्य अनुभव है कि किसी भी अदालत में एक मामले पर फैसला आने में 10 से 15 साल लग जाते हैं। अगर कोई व्यक्ति तीन वर्षों से सांसद या विधायक है और वह अपराध करता है व उसके खिलाफ इसका मामला दर्ज होता है, तो फैसला आने में 10 साल तक लग सकते हैं। ऐसे में, वह व्यक्ति अपने इस कार्यकाल के अधूरे दो साल को पूरा कर सकता है और वह फिर से चुनाव लड़ने के लिए स्वतंत्र है। मान लीजिए, वह व्यक्ति अगला चुनाव जीत जाता है। तब वह अगले पांच साल तक अबाधित रूप से नीति-नियंता बना रहेगा और फिर से चुनाव लड़ेगा। इस तरह वह सात साल गुजार चुका होगा, जबकि उसने अपराध किया है। बात यहीं खत्म नहीं होती। अगर वह व्यक्ति फिर चुनाव जीतता है, तो उसे जन-प्रतिनिधि बने रहने के लिए और पांच साल मिलेंगे। मान लें कि मामले पर दस साल में फैसला आता है और वह दोषी साबित होता है। उसे दो या दो से अधिक साल कैद की सजा होती है। यह तब होता है, जब वह अपने इस कार्यकाल के तीन साल गुजार चुका होता है। अब धारा 8 (4) उसे यह मौका देती है कि अगर वह फैसले के विरुद्ध हाई कोर्ट में अपील करे, और अगर वहां उसकी अपील सुनवाई के लिए स्वीकार होती है, तो वह विधायक या सांसद बना रह सकता है। साथ ही, वह आगे चुनाव लड़ सकता है।
एक बार फिर मान लें कि हाईकोर्ट में इस अपील पर फैसला आने में दस साल लग गए। पुनर्विचार याचिका खारिज कर दी गई और सजा को बरकरार रखा गया। इसके बाद वह व्यक्ति उच्चतम न्यायालय में अपील करता है और जहां मान लीजिए कि अपील पर फैसला आने में अगले दस साल लग गए और वहां भी सजा बरकरार रखी गई। यानी कुलजमा नतीजा यह होगा कि वह व्यक्ति अपराध करने के 30 साल बाद चुनाव लड़ने के लिए कानूनी रूप से अयोग्य साबित होता है। वह व्यक्ति हर पांच साल के पांच कार्यकाल तक कानून-निर्माता बना रहा। साथ ही, उसने अपराध करने के तुरंत बाद के दो साल अपने पद पर बिताए और आखिरी कार्यकाल के तीन साल भी, जब उच्चतम न्यायालय ने अंतिम फैसला सुनाया।
यह सच है कि ऊपर जिसका जिक्र हुआ है, वह पूरा काल्पनिक मामला है। लेकिन इससे हमें स्थिति की गंभीरता का अंदाज तो मिल ही सकता है। हमारे पास जो आंकड़ें हैं, वे उम्मीदवारों द्वारा सौंपे गए हलफनामे से मिले हैं। ऐसा हलफनामा उन्हें चुनाव लड़ने के लिए भरना ही पड़ता है। यह परंपरा एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) द्वारा दायर एक जनहित याचिका पर 2003 में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए एक फैसले से शुरू हुई थी। इसके बाद 2004 में आम चुनाव के दौरान पहली बार यह पता चला कि 125 ऐसे सांसद हैं, जिनके खिलाफ ऐसे आपराधिक मामले चल रहे हैं जिनमें उन्हें दो साल या उससे ज्यादा की सजा हो सकती है। साल 2004 में 125 ऐसे सांसद थे, जबकि साल 2009 में ऐसे सांसदों की संख्या बढ़कर 162 हो गई। कुल 4,807 सांसदों व विधायकों के उसी हलफनामे के विश्लेषण से पता चलता है कि इनमें 1,460 यानी 30 फीसदी सांसदों व विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। 162 सांसद, जिन्होंने स्वयं अपने विरुद्ध आपराधिक मामलों को स्वीकारा है, कुल सांसदों का 30 प्रतिशत हैं। आश्चर्यजनक रूप से इसी तरह कुल 4,032 विधायकों में से 1,258 विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं, जो 31 प्रतिशत होते हैं। आखिर इससे क्या पता चलता है?
इससे पता चलता है कि जिन लोगों के खिलाफ आपराधिक मामले हैं, उन्हें जनता तो बाद में चुनती है, उससे पहले उन्हें राजनीतिक पार्टियां टिकट देती हैं। बिना किसी अपवाद के सभी राजनीतिक पार्टियां यही कर रही हैं। बावजूद इसके वे कहती हैं कि राजनीति में अपराधियों के आने के वे खिलाफ हैं। और जिन नेताओं के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं, वे जन-प्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (4) के जरिये चुनाव लड़ते रहे हैं। अब उच्चतम न्यायालय ने इस ‘लूपहोल’ को ही निरस्त कर दिया है। इसलिए यह न्यायिक फैसला राजनीति में अपराधीकरण को रोकने की ओर एक अहम कदम है। इसके लिए देश को उच्चतम न्यायालय, लिली थॉमस, लोक प्रहरी व एसएन शुक्ला और फली नरीमन का आभारी होना चाहिए।
