उच्चतम न्यायालय ने 10 जुलाई को दो फैसले किए थे। एक में कहा गया था कि वे लोग चुनाव में उम्मीदवार नहीं हो सकते, जो किसी भी वजह से कारावास में हैं और मतदान नहीं कर सकते हैं। इस फैसले को पिछले महीने मानसून सत्र के दौरान संसद ने नकार दिया और कानून में परिवर्तन कर दिया। उसी दिन, 10 जुलाई को ही उच्चतम न्यायालय ने एक दूसरा फैसला किया, जिसमें यह कहा कि अगर किसी सांसद या विधायक को किसी आपराधिक मामले में दो साल से ज्यादा की सजा हो जाती है, तो उनकी विधायकी या संसद सदस्यता को समाप्त कर दिया जाएगा। इसके बाद सरकार ने उच्चतम न्यायालय में पुनर्विचार याचिका दायर की, जिसको उच्चतम न्यायालय ने अस्वीकार कर दिया।
केंद्र सरकार ने 30 अगस्त को राज्यसभा में एक विधेयक प्रस्तुत किया, जिसमें जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 में संशोधन का प्रावधान था, ताकि उच्चतम न्यायालय के 10 जुलाई के सदस्यता खत्म करने के फैसले को प्रभावहीन किया जा सके। यह विधेयक राज्यसभा में पारित न हो सका। राज्यसभा ने इस विधेयक पर विस्तार से विचार के लिए इसे स्टैंडिंग कमेटी (स्थायी समिति) को भेज दिया। इससे यह साफ है कि न्यायपालिका ने इस मामले में अपनी सुविचारित राय दो दफा व्यक्त कर चुकी है। एक बार फैसले के रूप में और एक बार अतिरिक्त विचार की जरूरत के आग्रह पर। इसके बावजूद सरकार इसे बदलना चाहती है।
न्यायपालिका की राय हमें साफ तौर पर मिल चुकी है। विधायिका का फैसला अभी हमें नहीं मिला। वह इसे करने की किसी जल्दबाजी में नहीं दिखाई देती। ऐसे में अकेले कार्यपालिका द्वारा अध्यादेश के जरिये इसे बदलना ‘चेक ऐंड बैलेंस’ के सिद्धांत का स्पष्ट रूप से उल्लंघन है। यह लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुकूल नहीं है।
यह तो थी अध्यादेश लाने की प्रक्रिया की बात। अब अगर हम अध्यादेश के तथ्यों की बात करें, तो भी एक बड़ी विचित्र स्थिति उभरकर हमारे समाने आती है। अध्यादेश में यह लिखा हुआ है कि जिन सांसदों या विधायकों को कानूनी जुर्म में कारावास की सजा मिलती है, वे अगर तीन महीने में अपील दाखिल कर दें, तो वे सांसद या विधायक बने रह सकते हैं। एक शर्त यह है कि ऐसे सदस्य को वोट डालने का अधिकार नहीं होगा।
अगर एक सदस्य संसद या विधानमंडल में वोट ही नहीं डाल सकता, तो उसका संसद या विधानमंडल में होने का आखिर अर्थ क्या रह जाएगा? मतदाताओं के लिहाज से देखें, तो उन्हें ऐसा प्रतिनिधि मिलेगा, जिसके पास संसदीय प्रक्रिया में भूमिका अदा करने का अधिकार ही नहीं है। इस तरह से यह अध्यादेश मतदाताओं की जरूरतों की भी अनदेखी करता है।
मुमकिन है कि तकनीकी तौर पर अध्यादेश की प्रक्रिया में कोई खामी न हो। लेकिन जो विधेयक संसद के पटल पर रख दिया गया है, वह अब संसद की संपत्ति है, वह किसी रूप में उसके विचाराधीन है। अब उस मामले में अध्यादेश जारी करना किसी भी तरह से ठीक नहीं कहा जा सकता। इसलिए अच्छा होता कि इस विधेयक को संसद की प्रक्रिया से गुजरकर कानून बनने दिया जाता, न कि अध्यादेश लाया जाता। यह समझने की आवश्यकता है कि संसद या विधायिका का मूल उद्देश्य कानून बनाना होता है। इसमें सांसदों या विधायकों की सबसे बड़ी जिम्मेदारी यह होती है कि वे प्रस्तावित कानून के मसौदे को पढ़ें, समझों, उन पर टिप्पणी दें और अंत में उन पर अपनी राय अपने वोट द्वारा व्यक्त करें। हर लोकतांत्रिक देश में यह जिम्मेदारी जन-प्रतिनिधियों को सौंपी जाती है। लेकिन जन-प्रतिनिधियों का मत सामने आने से पहले ही कानून में बदलाव करना एक तरह से परंपरा का उल्लंघन है।
इन हालात में यह अध्यादेश राष्ट्रपति को भेजना किसी भी तरह से ठीक नहीं कहा जा सकता। इन्हीं सब बातों को देखते हुए देश के बहुत-से लोगों ने राष्ट्रपति महोदय से यह याचना की है कि वह इस अध्यादेश को अपनी स्वीकृति न दें। इसके पीछे यही उम्मीद है कि देश के सर्वोच्च पदाधिकारी इस मामले में अपनाई गई गलत परंपरा और सबसे बड़ी बात है कि जनता की भावना समझोंगे।
यह भी तय है कि अगर इस अध्यादेश को स्वीकृति मिल जाती है, तो इसे न्यायपालिका में चुनौती दी जाएगी। खबर यह है कि कई लोग इसकी तैयारी भी कर रहे हैं। यह कानूनी लड़ाई कहां तक पहुंचेगी और क्या मोड़ लेगी यह अभी नहीं कहा जा सकता। लेकिन, केंद्रीय मंत्रिमंडल ने जो यह फैसला किया है, वह देश की लोकतांत्रिक गरिमा पर एक बहुत बड़ा धब्बा है।
उच्चतम न्यायालय का यह निर्णय, जिसे आम तौर पर ‘लिली थॉमस निर्णय’ कहा जाता है, देश के राजनीतिक वर्ग के लिए एक सुनहरा मौका है, जिसको अगर यह तबका सही तरीके से इस्तेमाल करे, तो वाकई देश की शासन-व्यवस्था में बहुत कुछ सुधार हो सकता है। इस फैसले में देश की व्यवस्था में आमूल-चूल बदलाव की एक बहुत बड़ी संभावना छिपी है। अब यह हम पर निर्भर करेगा कि हम इस फैसले का इस्तेमाल एक अवसर की तरह कर पाते हैं या नहीं। इस पर एक पुरानी हिंदी फिल्म ‘जागृति’ के एक गाने की पंक्तियां याद आ रही हैं, ‘अब वक्त आ गया मेरे हंसते हुए फूलो, उठो छलांग मार के आकाश को छू लो..।’
सर्वोच्च न्यायालय के जुलाई के फैसले से समाज में एक आस जगी है। राजनीति में अपराधीकरण के विरुद्ध इस फैसले को कुछ इस तरह देखा गया है, जैसे डूबते को तिनके का सहारा मिल गया हो। लेकिन देश का राजनीतिक वर्ग जनता की इस उम्मीद पर पानी फेर रहा है। लेकिन आखिर में कामयाबी इन उम्मीदों को ही मिलेगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)