3 जून 2013 को केन्द्रीय सूचना आयोग की तीन सदस्यीय पूर्ण पीठ के सामने अंतिम सुनवाई के लिए आया एक प्रश्न निर्णीत हो गया. उसके कारण पंजीकृत राजनीतिक पार्टियों में खलबली मच गई है. आयोग का फैसला राजनीतिक पार्टियों की पीठ पर कोड़ा मारता दिखा, लेकिन उसे दलों ने पेट पर लात मारने की शक्ल में माना और अपनी जगहंसाई कराई.
आयोग के सामने प्रश्न था कि क्या सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 2 (ज) के अनुसार राजनीतिक दलों को लोकप्राधिकारी (पब्लिक अथॉरिटी) माना जा सकता है? {अधिनियम की धारा 2 (ज) के अनुसार ‘लोक प्राधिकारी‘ से,-(क) संविधान द्वारा या उसके अधीन; (ख) संसद द्वारा बनाई गई किसी अन्य विधि द्वारा; (ग) राज्य विधान मंडल द्वारा बनाई गई किसी अन्य विधि द्वारा; (घ) समुचित सरकार द्वारा जारी की गई अधिसूचना या किए गए आदेश द्वारा, स्थापित या गठित कोई प्राधिकारी या निकाय या स्वायत्त सरकारी संस्था अभिप्रेत है, और इसके अन्तर्गत समुचित सरकार के स्वामित्वाधीन, नियंत्रणाधीन या उसके द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध कराई गई निधियों द्वारा,-;पद्ध पर्याप्त वित्त-पोषित कोई गैर सरकारी संगठन; ;पपद्ध कोई अन्य निकाय भी है;}‘ आयोग ने उपरोक्त पर विचार करते हुए यही फैसला किया कि देश के प्रत्येक नागरिक को सूचना के अधिकार के तहत राजनीतिक दलों को लोक प्राधिकारी समझने का अधिकार है. तदनुसार उन पर सूचना अधिनियम के सभी प्रावधान लागू होंगे.
फैसला इतना क्रांतिकारी भी नहीं है, जिससे राजनीतिक पार्टियों को आशंकित या उत्तेजित होने और अभियुक्त-मुद्रा में घबराने की ज़रूरत हो. अपनी प्रतिक्रिया में लगभग सभी राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि गैरज़रूरी रूप में बौखलाए हुए नज़र आए. उन्होंने आयोग के सीधे सादे और प्रत्यक्ष फैसले को रबर की तरह खींचकर यहां तक कह दिया कि फैसले का अनुपालन करने में उन्हें क्या क्या करना बताना होगा. कांग्रेस के प्रवक्ता वरिष्ठ एडवोकेट अभिषेक मनु सिंघवी ने तो चुनौती के स्वर में कहा कि उनकी पार्टी न केवल निर्णय को न्यायालय में चुनौती देगी बल्कि खारिज भी कराएगी.
पूर्व केन्द्रीय सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह ने निर्णय का समर्थन तो किया और यह भी कहा कि राजनीतिक पार्टियों को लोक प्राधिकारी समझा जाना चाहिए. यह भी कि उनकी राजनीतिक बैठकों का यदि कोई ब्यौरा लिपिबद्ध किया जाता है, तो उसे नागरिकों को सूचना के अधिकार के तहत बताया जाना मुनासिब होगा. भाजपा के प्रतिनिधि सुधांशु मित्तल निर्णय के खिलाफ लंबी जिरह करते रहे. बीच बीच में कहते रहे कि वह उनकी निजी राय है, यद्यपि वे पार्टी के प्रवक्ता के रूप में बहस कर रहे थे. समाजवादी पार्टी के प्रतिनिधि, जद (यू) के शरद यादव और सी. पी. एम. के प्रकाश कराट जैसे नेताओं की प्रतिक्रियाएं शांत या गंभीर नहीं कही जा सकतीं. सभी राजनीतिक पार्टियां अपनी पवित्रता का कोरस तो गा रही हैं, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से सूचना आयोग पर हमला करने के बहाने भारत के नागरिकों के सार्वभौम अधिकार को ही चुनौती दे रही हैं. यह भी विरोधाभासी है कि आयोग के निर्णय का विरोध करने वाली कम्युनिस्ट पार्टियों ने ब्यौरा देने में आयोग के सामने सहमति दी थी.
किस्सा क्या था? सुभाषचंद्र अग्रवाल और अनिल बेरीवाल नामक सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आयोग के सामने दो याचिकाएं प्रस्तुत कीं. इनके जरिए उन्होंने देश की प्रमुख राजनीतिक पार्टियों से उनके चुनाव घोषणा पत्रों तथा उन पर किए गए अमल, आय व्यय के विस्तृत विवरणों तथा पार्टी सदस्यों एवं अन्य स्त्रोतों द्वारा मिलने वाली आर्थिक सहायताओं की जानकारियां मांगीं थीं.
नोटिस मिलने पर कांग्रेस के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा तथा भाजपा के शांतिलाल अग्रवाल ने लिखकर दिया कि उनके संगठन सूचना अधिनियम के अनुसार ‘लोक प्राधिकारी‘ की परिभाषा में नहीं आते. ऐसा ही कथन एन. सी. पी. के प्रतिनिधि चंदन बोस ने भी किया. उन्होंने यह भी अतिरिक्त सूचना दी कि उनकी पार्टी आय व्यय के सभी ब्यौरे चुनाव आयोग को देती है. वही पर्याप्त है.
इसके विपरीत सी. पी. आई. के के. सी. बंसल ने वर्ष 2004-2005 से 2009-2010 तक के विवरण प्रस्तुत कर दिए. बाकी प्रमुख राजनीतिक दलों ने कोई उत्तर प्रस्तुत नहीं किया. सुभाषचंद्र अग्रवाल ने पुनः शिकायत दर्ज की कि कांग्रेस और भाजपा को राष्ट्रीय पार्टी होने के कारण दिल्ली और नई दिल्ली में अपेक्षाकृत नामधारी दरों पर भूमि आवंटित की गई है. इस तरह उन्हें सरकार से आर्थिक सहायता मिलने के कारण लोक प्राधिकारी मानना चाहिए.
आयोग की पूर्ण पीठ ने इसके बाद प्रकरण की विस्तृत सुनवाई शुरू की. शिकायतकर्ता सुभाष अग्रवाल ने प्रमुख रूप से कहा कि राजनीतिक दल संवैधानिक हैसियत रखते हैं. वे संविधान की दसवीं अनुसूची की शक्तियों का इस्तेमाल कर अपने विधायकों को अयोग्य कर सकते हैं. राजनीतिक दलों को लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत अधिनियमित दर्जा दिया गया है. इसी अधिनियम की धारा 29-क (5) के अनुसार राजनीतिक दलों को संविधान के प्रति विश्वास और निष्ठा की शपथ लेनी पड़ती है. पार्टियों के चुनाव चिन्ह पर टिकट प्राप्त उम्मीदवारों को लोकतंत्रात्मक सरकार चलाने के लिए जनता वोट देती है. दलों को आयकर अधिनियम के तहत छूट भी मिलती है.
सुभाष अग्रवाल ने अपने कथन के समर्थन में अनेक दस्तावेज प्रस्तुत किए. ऐसा ही अनिल बेरीवाल ने किया. उससे जाहिर हुआ कि शिकायतकर्ताओं के आरोपों में सचाई है. यह भी शिकायत की गई कि राजनीतिक दलों को आॅल इंडिया रेडियो तथा दूरदर्शन पर मुफ्त प्रचार की सुविधा है. उसमें राज्य के लाखों रुपए व्यय होने की बात बताई गई. चुनाव नियमों के तहत राजनीतिक पार्टियों को मतदाता सूचियों की दो प्रतियां निःशुल्क प्रदान की जाती हैं. वह अप्रत्यक्ष वित्तीय सहायता है. इसके अतिरिक्त भी केन्द्र तथा राज्य सरकारों ने राजनीतिक पार्टियों को कई मकान, भवन तथा अन्य आवासीय सुविधाएं मुफ्त अथवा बराएनाम दरों पर मुहैया कराई हैं.
सुभाष अग्रवाल के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने भी प्राप्त जानकारी के आधार पर उन्हीं कानूनी मुद्दों को विस्तारित तथा व्याख्यायित किया. उन्होंने तर्क किया कि राजनीतिक दल लोकतांत्रिक गणराज्य में उसके जीवन के लिए प्रवाहित रक्त की तरह हैं. उन्हें राज्य से अप्रत्यक्ष रूप में आर्थिक सहायता मिलती है. इसलिए उन्हें लोक प्राधिकारी घोषित करना चाहिए. ए. के. अनेजा ने भी आयकर अधिनियम की धारा 80 जी जी बी का उल्लेख किया जो सहूलियत केवल राजनीतिक पार्टियों को देती है. अनिल बेरीवाल ने भी उन्हीं कानूनी मुद्दों को फोकस करके तर्क किया कि जवाबदेही और पारदर्शिता के बिना राजनीतिक पार्टियों के अस्तित्व का कोई अर्थ नहीं है. विधि आयोग की 170 वीं रिपोर्ट के संबंधित अंश में यही सिद्धांत प्रतिपादित किया गया है.
बेरीवाल ने आयोग के एक पुराने फैसले का हवाला देते हुए यही कहा कि आयोग ने पांच वर्षों पूर्व ही यह आदेश पारित किया है कि उसके द्वारा आयकर रिटर्न आदि की दी गई जानकारियों को जानने का अधिकार आम जनता को है. बेरवाल ने एक महत्वपूर्ण बात कही कि सूचना अधिनियम के तहत ‘लोक प्राधिकारी‘ भारतीय संविधान के अनुच्छेद 12 में वर्णित ‘राज्य‘ शब्द से ज्यादा व्यापक समझा जाना चाहिए. ऐसा हो सकता है कि कोई इकाई राज्य नहीं हो लेकिन फिर भी उसे लोक प्राधिकारी समझा जाए.
बेरीवाल का यह कथन पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा पारित एक निर्णय के आधार पर उपस्थित किया गया. उन्होंने दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन बनाम वीरेश मलिक प्रकरण का उल्लेख करते हुए किसी विशेष अधिनियम के सही मकसद को समझने की जिरह की. उन्होंने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 102 (2), 191 (2) तथा दसवीं अनुसूची को एक साथ पढ़ने से राजनीतिक पार्टियों की संवैधानिकता स्पष्ट होती है. राजनीतिक दलों को व्यक्तियों का समूह मात्र नहीं कहा जा सकता, उन्हें लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 29 (क) के अंतर्गत पंजीबद्ध किया जाता है. संविधान के अनुच्छेद 324 के अंतर्गत बने चुनाव नियमों के तहत राजनीतिक दलों को चुनाव चिन्ह आवंटित किए जाते हैं, जिन्हें नियमों का उल्लंघन होने पर रद्द भी किया जा सकता है.
कम्युनिस्ट पार्टी ने खुद को लोक प्राधिकारी कहने पर आपत्ति की. लेकिन आय व्यय का ब्यौरा सौंप दिया. पुनः कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव ए. बी. बर्धन ने संशोधित पत्र द्वारा अपनी पार्टी को लोक प्राधिकारी कहलाना स्वीकार किया. इस तरह कम्युनिस्ट पार्टी ने विरोधाभासी बयान किए. बसपा ने भी खुद को लोक प्राधिकारी बताए जाने पर आपत्ति की. एन. सी. पी. के अधिवक्ता ने लंबी जिरह की.
उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी को आकाशवाणी, दूरदर्शन, मतदाता सूची, आयकर में छूट आदि सुविधाओं के आधार पर शासकीय वित्तीय सहायता का अप्रत्यक्ष खातेदार नहीं बताया जा सकता. ऐसी सुविधाएं दुनिया के अन्य मुल्कों में भी मिलती हैं. राजनीतिक दलों को लोक प्राधिकारी बताए जाने पर छद्म आवेदन पत्रों का अंबार खड़ा हो जाएगा. दानदाताओं के नाम उजागर किए जाने से राजनीतिक दलों का नुकसान होगा. कई दानदाता अपने नाम उजागर नहीं करना चाहेंगे. खुद चुनाव आयोग की एक सदस्यीय पीठ ने 2009 में यह फैसला किया ही है कि राजनीतिक दल धारा 2 (ज) के अंतर्गत लोक प्राधिकारी नहीं हैं. ऐसा ही फैसला गोवा राज्य के सूचना आयुक्त ने महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी को लोक प्राधिकारी नहीं मानते हुए किया है.
आयोग ने सभी राजनीतिक पार्टियों को नोटिस देते हुए उनसे संबंधित कई तरह की जानकारियां मांगीं. उनमें भूमियों के आवंटन संबंधी ब्योरो पर ज़्यादा जोर दिया गया था. आयोग ने हेरॉल्ड लास्की की क्लासिक ‘ग्रामर ऑफ पॉलिटिक्स’ का उद्धरण देते हुए यह परिभाषित किया कि प्रजातांत्रिक राज्य की अवधारणा, राजनीतिक दलों की पद्धति के आधार पर ही होती है. संयुक्त राज्य अमरीका में मुख्यतः दो पार्टियां हैं, जबकि भारत सहित कई देशों में राजनीतिक पार्टियों की बहुलता है. राजनीतिक दल अपने आदर्शों और कार्यक्रम के आधार पर लोकमत का निर्धारण करते हैं और सरकार बनाते हैं.
लोकतंत्र राजनीतिक पार्टियों के बिना चल ही नहीं सकता. इसीलिए भारत में भी राजनीतिक पार्टियों को तरह तरह की अप्रत्यक्ष सरकारी वित्तीय मदद दी जाती है. लोकतंत्र के निर्वाचित प्रतिनिधियों को (जो जनता द्वारा चुने जाते हैं) अयोग्य ठहराने की शक्ति राजनीतिक पार्टियों में वेष्ठित की गई है. इस संबंध में जनता से कोई सलाह नहीं की जाती. राजनीतिक दल सामान्य व्यक्तियों का संगठन नहीं होते. उन्हें चुनाव आयोग द्वारा विधिक रूप से पंजीकृत किया जाता है तथा चुनाव चिन्हों का आवंटन किया जाता है. आवश्यकतानुसार राजनीतिक दलों का पंजीकरण और चुनाव चिन्ह भी निरस्त किए जाते हैं. इस तरह उन्हें पूरी तौर पर गैर वित्त पोषित निजी संगठन नहीं समझा जा सकता.
चुनाव आयोग ने यह तो माना कि राजनीतिक पार्टियां सूचना अधिनियम की धारा 2 (क) (ख) (ग) (घ) के अंतर्गत गठित प्राधिकारी नहीं हैं. देखना यही होगा कि राजनीतिक दलों को अप्रत्यक्ष वित्तीय सहायताएं मिलती हैं. उस दृष्टि से क्या उन्हें लोक प्राधिकारी कहा जा सकता है. राजनीतिक दलों ने यह आरोप लगाया कि उन्हें पर्याप्त वित्त पोषित गैर सरकारी संगठन नहीं माना जा सकता क्योंकि सरकार से मिलने वाली अप्रत्यक्ष वित्तीय सहायता बहुत महत्वपूर्ण नहीं होती.
इस सिलसिले में आयोग ने दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा कृषक भारती कोऑपरेटिव लिमिटेड बनाम रमेशचंद्र बावा के प्रकरण का लोक प्राधिकारी की परिभाषा को समझने के लिए अवलंबन किया. आयोग ने दिल्ली हाईकोर्ट के अन्य न्याय निर्णय इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन बनाम वीरेश मलिक का भी उद्धरण दिया. आयोग ने यह भी पाया कि खुद उसने अपने पूर्व आदेश अमरदीप वालिया बनाम चंडीगढ़ लॉन टेनिस एसोसिएशन में एसोसिएशन को लोक प्राधिकारी माना है. अन्य प्रकरण प्रदीप भानोट में भी चंडीगढ़ क्लब को आयोग ने ही लोक प्राधिकारी करार दिया है. अमृत मेहता बनाम इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के प्रकरण में भी सस्ती दरों पर सरकारी भूमि पाने के कारण सेंटर को लोक प्राधिकारी माना गया था.
अपने एक और आदेश में आयोग ने देहली पब्लिक स्कूल, रोहिणी को इन्हीं आधारों पर लोक प्राधिकारी घोषित किया है. आयोग ने शिकायतकर्ताओं द्वारा प्रस्तुत तथ्यात्मक तथा वैधानिक आधारों और दस्तावेजों तथा अनेक न्याय उद्धरणों में वर्णित सूक्ष्म कानूनी उपपत्तियों की अवधारणाओं से सहमत होते हुए यही पाया कि राजनीतिक दलों को लोक प्राधिकारी की परिभाषा में रखा जाना जनहित में आवश्यक होगा. आयोग ने राजनीतिक दलों द्वारा इन्कम टैक्स की छूट की गणितीय गणना भी की और पाया कि इस मद में ही उन्हें कम से कम पांच सौ करोड़ रुपए की छूट मिल चुकी है. साथ ही तरह तरह की आर्थिक सहूलियतों का सही मूल्यांकन नहीं भी हो सके तब भी राजनीतिक दल पर्याप्त रूप से वित्त पोषित माने ही जाएंगे.
इस सिलसिले में आयोग को कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले बंगलोर इंटरनेशनल एयरपोर्ट लिमिटेड बनाम कर्नाटक सूचना आयोग से भी मदद मिली. हाईकोर्ट ने पूरे वित्तीय विवरणों के अभाव में कंपनी अधिनियम के उस प्रावधान पर भरोसा किया जो 26 प्रतिशत शेयर धारण करने पर शेयर धारक को कंपनी में पर्याप्त अधिकार सौंपता है. ऐसी वित्तीय सहायता साम्य, अनुदान या छूट के रूप में भी हो सकती है.
आयोग ने राजनीतिक पार्टियों के ऊपरी तौर पर विरोधाभासी लेकिन आंतरिक तौर पर लोकतांत्रिक और संवैधानिक प्रक्रियाओं से सुसंगत दीखने पर यही पाया कि राजनीतिक दलों के अभाव में भारतीय लोकतंत्र की राज्य शक्तियों का अमल में लाना संभव नहीं हो सकता. राजनीतिक दल ही ऐसी शक्ति के प्रस्तोता, प्रवर्तक और प्रवक्ता बन जाते हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने भी भारत संघ बनाम एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के प्रकरण में यह मत स्थिर किया था कि लोकतंत्र में पारदर्शिता के लिए राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों द्वारा प्रचार पर किए गए व्यय को जानने का हक इस देश के हर नागरिक को है. ऐसा ही मत संविधान पुनरीक्षण आयोग द्वारा मार्च 2002 में प्रस्तुत की गई रिपोर्ट और कॉमन कॉज बनाम भारत संघ के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय में परिलक्षित होता है.
आयोग ने यह टिप्पणी भी की कि भारत के संविधान में जिस सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय तथा विचार अभिव्यक्ति, विश्वास और पूजा की स्वतंत्रता तथा स्टैटस और अवसरों की बराबरी की बात कही गई है. वैसा ही तो सूचना का अधिनियम का उद्देश्य भी कहता है-‘भारत के संविधान ने लोकतंत्रात्मक गणराज्य की स्थापना की है; और लोकतंत्र शिक्षित नागरिक वर्ग तथा ऐसी सूचना की पारदर्शिता की अपेक्षा करता है, जो उसके कार्यकरण तथा भ्रष्टाचार को रोकने के लिए भी और सरकारों तथा उनके परिकरणों को शासन के प्रति उत्तरदायी बनाने के लिए अनिवार्य है; और वास्तविक व्यवहार में सूचना के प्रकटन से संभवतः अन्य लोक हितों, जिनके अंतर्गत सरकारों के दक्ष प्रचालन, सीमित राज्य वित्तीय संसाधनों के अधिकतम उपयोग और संवेदनशील सूचना की गोपनीयता को बनाए रखना भी है, के साथ विरोध हो सकता है; और लोकतंत्रात्मक आदर्श की प्रभुता को बनाए रखते हुए इन विरोधी हितों के बीच सामंजस्य बनाना आवश्यक है; अतः, अब यह समीचीन है कि ऐसे नागरिकों को, कतिपय सूचना देने के लिए, जो उसे पाने के इच्छुक हैं, उपबंध किया जाए.‘
आयोग ने साफ तौर पर कहा कि उसके सामने उपस्थित पक्षकार कांग्रेस, भाजपा, माकपा, भाकपा, एन. सी. पी. और बसपा सूचना का अधिकार अधिनियम के अंतर्गत लोक प्राधिकारी की परिभाषा में हैं. एकल पीठों द्वारा किए गए विपरीत निर्णयों को पूर्ण पीठ ने रद्द कर दिया.
राजनीतिक दलों को निर्देश दिए गए कि वे छह सप्ताह के अंदर सूचना अधिकारियों की नियुक्ति करें. नियुक्त सूचना अधिकारी अगले चार सप्ताह के भीतर आवश्यक वैधानिक कार्यवाही करें. राजनीतिक दलों को धारा 4 (1) (ख) के अंतर्गत भी कार्यवाही करना आवश्यक होगा अर्थात उन्हें अधिनियम के लागू होने से चार माह के भीतर अनेक आवश्यक जानकारियों को प्रकाशित करना होगा और प्रतिवर्ष उन्हें संशोधित करते रहना होगा.
केन्द्रीय सूचना आयोग ने प्रकरण की गंभीरता, व्यापकता, उपादेयता और भविष्यमूलकता को देखकर दूरगामी तथा अर्थमूलक निर्णय देने की कोशिश की. आयोग ने कहा कि राजनीतिक पार्टियों की अनोखी संवैधानिक स्थिति होती है. संविधान में केन्द्रीय तथा राज्यस्तरीय राजनीतिक कार्यपालिका का उल्लेख किया गया है. आयोग के अनुसार पारदर्शिता और जवाबदेही का जुड़वा चरित्र है. पारदर्शिता बढ़ेगी तो जवाबदेही भी.
इस युग्म को सुप्रीम कोर्ट ने टी. एन. शेसन बनाम भारत संघ के मुकदमे में सैद्धांतिक निरूपण के जरिए व्याख्यायित किया है. सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की उद्देशिका को स्वतंत्र और स्वच्छ चुनावों के माध्यम से समझाने की कोशिश भी की है. आयोग के तर्क की अंतध्र्वनि है कि प्रशासन के स्तर पर पारदर्शिता के जरिए जवाबदेही के मकसद को प्रशासन में गूंथना अधिनियम का उद्देश्य है. इसलिए राजनीतिक दलों को पूरी तौर पर अशासकीय संस्थाएं समझते हुए पारदर्शिता और जवाबदेही की नैष्ठिक जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं किया जा सकता. आयोग ने खुलासा किया कि अधिनियम की उद्देशिका में संसद ने ही यह तय किया है कि अधिनियम ऐसी पारदर्शिता की अपेक्षा करता है जिससे प्रशासकीय भ्रष्टाचार को रोका जा सके तथा सरकारों और लोक प्राधिकारियों को जनता के प्रति उत्तरदायी बनाया जा सके. इसलिए राज्य सत्ता में भागीदारी करने की आवश्यक संवैधानिक इकाइयों के रूप में राजनीतिक पार्टियों का अस्तित्व खुलेपन, पारदर्शिता और संवैधानिक उत्तरदायित्व की मांग करता है.
यह सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग और अब केन्द्रीय सूचना आयोग की संयुक्त चिंता प्रतीत होती है कि उम्मीदवारों और पार्टियों की धन संबंधी जानकारियां उनकी निजता का उल्लंघन नहीं करती हैं. सुप्रीम कोर्ट के अधिकांश फैसले सूचना अधिनियम बनने के पहले के हैं. तब जनता को सूचित होने का कोई अन्य माध्यम उपलब्ध नहीं था. सुप्रीम कोर्ट ने सूचना अधिनियम के विधायन को लोकतंत्र के हक में एक क्रांतिकारी कदम करार दिया है. अधिनियम अन्ततः राजनीतिक पार्टियों से बनी संसद की ही रचना है.
यह विरोधाभास है कि एक ओर सुप्रीम कोर्ट की लगातार केन्द्रीय चिंताओं से रूबरू और संपृक्त होने के बाद संसद ने सूचना का अधिकार अधिनियम बनाया. अब उसी संसद के अवयव राजनीतिक पार्टियों के रूप में एक जनोन्मुखी निर्णय का विरोध कर रहे हैं. अभी तक देश में ऐसा कोई कानून नहीं है जो राजनीतिक पार्टियों को मजबूर करे कि वे अपनी आय के सभी स्त्रोत जनता को उजागर करें. यह भी कि वे व्यय किस तरह करते हैं. राजनीतिक पार्टियों द्वारा स्वविवेक से इन्कम टैक्स रिटर्न प्रस्तुत किए जाते हैं. उनकी जानकारी भी सामान्य जनता को आयकर अधिनियम की धारा 138 के प्रतिबंधों के तहत केवल जनहित परिलक्षित होने पर ही मिल सकती है.
यह अपने आपमें सीमित, नकारात्मक और आयकर अधिकारी के स्वविवेक पर आधारित है जिसे जनता के अधिकार से अभी तक तो श्रेष्ठ माना गया था. जनता को सूचना प्राप्त करना संविधान प्रदत्त प्रक्रिया अथवा अधिनियम के अंतर्गत हो अथवा सीमित सूचनाएं प्राप्त करने वाले आयकर अधिकारी के स्वविवेक पर निर्भर हो-यह द्वन्द्व एक अरसे तक रहा है. इस आधार पर ही सूचना का अधिकार अधिनियम संसद ने पारित किया.
आयोग के निर्णय में राजनीतिक पार्टियों को लोक प्राधिकारी की संज्ञा या विशेषण देना तय हुआ है. दूरदर्शन के चैनलों पर राजनीतिक पार्टियों के प्रतिनिधियों ने खुद को लोक प्राधिकारी बताए जाने पर हायतौबा मचाई. राजनीतिक पार्टियों की अन्य तमाम गतिविधियों जिनमें पार्टी की बैठकें और अन्य विवरण शामिल हैं को लेकर भी आयोग के आदेश में अधिकारहविहीन या अनावश्यक उल्लेख नहीं है.
राजनीतिक पार्टियों को उसी आयकर से छूट मिलती है जो अन्यथा जनता का धन है. उन्हें सस्ती दरों पर अपने कार्यालय तथा अन्य उद्यम लगाने के लिए शासकीय भूमियां मिलती हैं. उन्हें आय के सभी स्त्रोतों को बताने तथा किसी सक्षम एजेंसी द्वारा जांच किए जाने के प्रावधान नहीं हैं. इसके बावजूद यदि राजनीतिक पार्टियों की आपत्तियों को देश की संविधान अदालतें मान लेंगी, तो खुद उनके सामने अपने ही पूर्व निर्णयों से मुठभेड़ करने के सैद्धांतिक अवसर प्रतीक्षा कर रहे होंगे.