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20.12.2016
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एक अभ्यास कीजिए. आंखों को बंद कीजिए और कल्पना कीजिए कि काला धन, बेनामी संपत्ति के प्रतीक चिन्ह क्या-क्या हैं. अन्य चिन्हों के अलावा आपको नेता, उनके दल, हेलिकाप्टर, बेतहाशा प्रचार, चुनाव से पहले की रात शराब और नोटों का वितरण, रैलियों में चलने के लिए दो सौ से लेकर पांच सौ के नोट वगरैह की छवियां तैरने लगेंगी. काले धन के तमाम अड्डों में एक अड्डा हमारी राजनीति भी है. इसे साधने के लिए न जाने कितने कानून बने, जो भी बने आधे अधूरे बने, जिन्हें बनाने की बात हुई, उन्हें टाल दिया गया.

लोगों ने जब पूछना शुरू कर दिया कि रातोंरात कैश लेस होने के लिए गरीब जनता पर इतना दबाव डाला जा रहा है तो राजनीतिक दल क्यों नहीं कैश लेस हो जाते हैं. क्यों नहीं कह देते हैं कि अब किसी से दस रुपया भी कैश नहीं लेंगे, सिर्फ पेटीएम, मोबी क्विक या एसबीआई बडी से चंदा लेंगे. क्या गली-गली घूमकर दुकानदारों को कैशलेस लेनदेन सिखाने की मीडियाई औपचारिकता वाले सांसद मंत्री भी ऐलान कर सकते हैं कि वे अगले चुनाव में कैशलेस चुनाव लड़ेंगे. ई-वॉलेट से ही चंदा लेंगे. कहा जा रहा है कि नोटबंदी से गरीब जनता खुश है क्योंकि अमीरों की नींद उड़ गई है. चैन की नींद सोने वाली उसी गरीब जनता को पता है कि अमीरों की उसकी सूची में राजनीतिक दल, सांसद, विधायक भी आते हैं. वह उन नेताओं का इतिहास जानती है जो जीतने से पहले पैदल होते हैं, जीतने के बाद अकूत संपत्ति के मालिक हो जाते हैं. क्या जनता को आठ नवंबर के बाद हुई तमाम रैलियों में दिख रहा है कि वे पहले से सादी हो गई हैं. क्या उसे अब नहीं सुनाई देता कि किसी रैली में दो सौ, पांच सौ देकर लोग नहीं लाए जा रहे हैं. अगले साल पांच राज्यों में चुनाव होंगे. गरीब जनता चुनाव से पहले की रातों को जागकर देखेगी जब कोई नेता नोट और शराब बांटने नहीं आएगा. वैसे इस मामले में भी बदनाम गरीब ही किया जाता है. उसे तो दस-पांच ही बांटा जाता है, बड़े-बड़े स्थानीय नेता, सरपंच, प्रधान तो रातोंरात लाखों में बिककर भाजपाई से कांग्रेसी और कांग्रेसी से भाजपाई हो जाते हैं.

राजनीतिक दलों की वित्तीय व्यवस्था कैसे पारदर्शी हो. कई साल से इस पर बहस चल रही है मगर कई साल से बहस चलकर दम तोड़ देती है. नोटबंदी और कैशलेस की तरह चंदे को लेकर रातोंरात फैसले का ऐलान क्यों नहीं हो सकता है. कुछ कमी रह जाएगी तो नए नियम और बन जाएंगे.

चंदों के मामले में किसी राजनीतिक दल का रिकॉर्ड अच्छा नहीं है. इस विषय पर लगातार शोध करने वाली और जनता को जागरूक करने वाली संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म एडीआर की वेबसाइट पर जाकर देखिए. उनके शोध के आधार पर दि वायर में वैशाली रावत और हेमंत सिंह ने एक लेख लिखा है. एडीआर ने 2004 से 2012 के बीच छह राष्ट्रीय दलों के चंदे के हिसाब का अध्ययन किया है. किसी ने नहीं बताया कि 75 फीसदी चंदा कहां से आया है. आप जानते हैं कि 20,000 से अधिक का चंदा होने पर ही दलों को डिटेल देना होता है मगर एडीआर का कहना है कि इस मामले में भी राजनीतिक दल पैन नंबर से लेकर चेक नंबर की सही सही जानकारी नहीं देते हैं. अपने चंदे का 80 फीसदी हिस्सा 20,000 की रकम से नीचे दिखा देते हैं ताकि डिटेल न बताना पड़े.

एडीआर के अनुसार सही रिपोर्ट न देने पर राजनीतिक दलों के खिलाफ सजा या सख्त सजा का प्रावधान नहीं है. जबकि आप अगर आयकर रिटर्न में जानकारी गलत दे दें तो मुश्किल में पड़ सकते हैं. चुनाव आयोग को बताना चाहिए कि राजनीतिक दल आइटम वाइज़ खर्चे का हिसाब देते हैं या एकमुश्त. अगर आइटम वाइज़ हिसाब देते हैं तो क्या उनके पास रैलियों के खर्चे को लेकर दिए गए आंकड़ों का कोई ब्यौरा है. हेलिकाप्टर का कोई ब्यौरा है जिससे पता चले कि हमारे नेता कितना खर्चा करते हैं. एक ही हेलिकाप्टर कितने पैसे में बीजेपी के नेता को ले जाता है और कितने पैसे में कांग्रेस के नेता को.

क्या कांग्रेस-बीजेपी ने तब सोचा था जब इस साल एक कानून में बदलाव कर अपने लिए विदेशी कंपनियों से चंदा लेने की छूट का रास्ता बना लिया. जबकि दिल्ली हाईकोर्ट ने बीजेपी और कांग्रेस को लंदन स्थित कंपनी वेदांता से चंदा लेने के मामले में दोषी माना था और कार्रवाई का आदेश दिया था. क्या आपको पता है कि छह राष्ट्रीय राजनीतिक दल समय पर आईटी रिटर्न नहीं भरते हैं. इस मामले में एडीआर की रिसर्च कहती है कि बीजेपी, कांग्रेस, एनसीपी सब दोषी हैं. जब आम जनता के रिटर्न की स्क्रूटनी होती है तो राजनीतिक दलों के रिटर्न की स्क्रूटनी किस कानून के तहत मना है. 2012-13 और 2014-15 में बीजेपी ने बताया ही नहीं कि चंदा कैसे-कैसे मिला. कांग्रेस ने 2013-14 में पैन नंबर ही नहीं बताया.

इस वक्त हर दल चंदे को लेकर बहस की बात कर रहा है. एक मसला चला है कि चुनाव के खर्चे के लिए स्टेट फंड हो. किसी ने इसे नेशनल फंड कहा है तो किसी ने इसे पब्लिक फंड कहा है. स्टेट फंड का आइडिया अच्छा है. लेकिन इसे लेकर कई सवाल अभी पूछे जाने चाहिए.

स्टेट फंड से नेशनल पार्टी को कितना मिलेगा, क्षेत्रीय पार्टी को कितना मिलेगा, नई पार्टी को कितना मिलेगा.  क्या सबको बराबर मिलेगा या अलग-अलग मिलेगा. बहुत से उम्मीदवारों के छह-छह सौ करोड़ की संपत्ति के मामले होते हैं, इनका खर्चा पब्लिक फंड से क्यों उठाया जाना चाहिए. गरीब उम्मीदवार का खर्चा सरकार उठाए यह बात तो समझ आती है लेकिन किसी उम्मीदवार की हैसियत हजार करोड़ की है तो उसका चुनावी खर्चा भारत की गरीब जनता क्यों उठाए. एक आंकड़े के मुताबिक मौजूदा लोकसभा में 543 में से 449 सांसदों के पास एक करोड़ या इससे ज्यादा की संपत्ति है.  जिस पार्टी के सबसे अधिक करोड़पति उम्मीदवार हों क्यों न उसे कम चंदा दिया जाए. इससे राजनीति में गरीबों को आगे आने का मौका मिलेगा. आपके एंकर को लगता है कि यह आइडिया जनता के पैसे से अमीर और शाही घरानों के उम्मीदवारों को मदद करना है. यह और बात है कि आपका एंकर कोई विशेष नहीं है. इसकी क्या गारंटी है कि स्टेट फंड से बिजनेस घरानों पर राजनीतिक दलों की निर्भरता कम हो जाएगी. एक दलील है कि जब तक राजनीति से अपराधीकरण नहीं मिटेगा तब तक स्टेट फंड का विचार सफल नहीं हो सकता. क्यों पब्लिक के पैसे से किसी बाहुबली या माफिया के चुनाव को फंड किया जाना चाहिए. अभी उम्मीदवारों के खर्चे की एक सीमा तय है. तमाम नाकेबंदियों के बाद भी आयोग जानता है और मानता है कि बहुत से उम्मीदवार सीमा से ज्यादा खर्चा करते हैं. जब यही लागू नहीं हो सका तो स्टेट फंड से हम क्या हासिल करने वाले हैं.

इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट है. 21 अप्रैल 2014 को लोकसभा चुनाव के लिए यूपी के हरदोई में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक सभा को संबोधित कर रहे थे. वहां उन्होंने आपराधिक मामलों वाले सांसदों के बारे में एक प्रण किया था. अगर उसकी याद दिलाई जाए और वे पहल कर दें तो 2019 से पहले आपराधिक आरोपों वाले कई सांसदों की लोकसभा से विदाई हो सकती है. कई सांसद आरोप मुक्त भी हो सकते हैं. पीएम ने एक नारा दिया था. अपराधियों से मुक्त करो पार्लियामेंट को.

एडीआर के आंकड़ों के अनुसार बीजेपी के 98 सांसदों ने अपने हलफनामे में आपराधिक मामलों का जिक्र किया है. शिवसेना के 18 सांसदों में से 15 ने आपराधिक मामलों का जिक्र किया है. कांग्रेस के 44 में से 8 सांसद ऐसे हैं. चूंकि यह महिना संत होने और नैतिक होने का है इसलिए पुरानी बात याद दिला दी. नोटबंदी का एक अच्छा असर तो है कि राजनीतिक दलों की साख भी पब्लिक की निगाह में आ गई है.

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